RBI के पास 'ज़रूरत से ज़्यादा' पैसे होने का सच क्या

दो साल पहले आज ही के दिन प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने नोटबंदी की घोषणा करके सबको चौंका दिया था.

कुछ लोगों का मानना है कि नोटबंदी और आरबीआई के हालिया विवाद के तार भी जुड़े हुए हैं. इस विवाद में अब ये बात भी शामिल हो गई है कि सरकार आरबीआई से 3.61 लाख करोड़ रुपए मांग रही है.

आर्थिक मामलों के विशेषज्ञ प्रियरंजन दास कहते हैं कि "पिछले दिनों मोदी सरकार ने आरबीआई से जो 3.61 लाख करोड़ रुपये मांगे हैं उसकी कड़ी नोटबंदी के ग़लत फ़ैसले से मिलती है."

वो बताते हैं, "सरकार आरबीआई से पैसे इसलिए माँग रही है क्योंकि सरकार ये सोच रही थी कि नोटबंदी से वो तीन या साढ़े लाख करोड़ रुपए काला धन पकड़ेगी यानी ये राशि सिस्टम में वापस नहीं आएगी. सरकार सोच रही थी कि ये राशि वो आरबीआई से ले लेगी. अब वो हुआ नहीं तो सरकार बैंकों की मदद करने के नाम पर आरबीआई से साढ़े तीन लाख करोड़ रुपये माँग रही है."

क्या आरबीआई को पैसा देना पड़ेगा?
हालांकि इकनॉमिक टाइम्स अख़बार के संपादक टी के अरुण इससे इत्तेफ़ाक नहीं रखते और वो मानते हैं कि नोटबंदी का सरकार द्वारा आरबीआई से फंड लेने का कोई संबंध नहीं है.

टीके अरुण बताते हैं, "नोटबंदी से पहले ही मुख्य आर्थिक सलाहकार अरविंद सुब्रमण्यम ने अपने आर्थिक सर्वे में लिखा था कि दुनिया के बाक़ी केंद्रीय बैंकों की तुलना में आरबीआई के पास ज़रूरत से बहुत अधिक राशि जमा है. ये राशि सरकार को ट्रांसफ़र की जा सकती है जिससे सरकार कोई अच्छा काम कर सकती है."

विशेषज्ञ इस बात पर पूरी तरह से सहमत नहीं हैं कि सरकार को पैसे देने चाहिए या नहीं, लेकिन इस बात पर उनकी सहमति है कि आरबीआई और केंद्रीय सरकार के बीच इस तनाव में आरबीआई जल्द ही झुक जाएगी.

यरंजन दास की राय ये है कि आख़िर में आरबीआई को पैसे देने ही पड़ेंगे.

उनके अनुसार आरबीआई जैसी संस्थाओं की पूरी स्वायत्तता होनी चाहिए लेकिन नोटबंदी के समय सरकार ने इस आर्थिक संस्था से कोई सलाह मशविरा नहीं किया था. इससे ये समझ में आता है कि आरबीआई की स्वायत्तता को सरकार ने 'किरकिरा' कर दिया है.

वहीं टीके अरुण के विचार में आरबीआई की स्वायत्तता को इस तरह से देखना चाहिए कि ये सरकार से अलग नहीं है.

वो कहते हैं कि "आरबीआई वित्त मंत्रालय का ही अंग है".

अरुण के अनुसार आरबीआई के पास सरकार को पैसे देने के अलावा कोई और रास्ता नहीं है.

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